Thursday, July 28, 2016

धर्म का मर्म समझा द्रोपदी ने -

धर्म का मर्म समझा द्रोपदी ने -

महाभारत युद्ध की समाप्ति हो चुकने के बाद कृष्ण द्वारका प्रस्थान करना चाहते हैं !  अचानक वो आज का जाना स्थगित करके कहते हैं - आज कुरुवंश का सूर्य अस्त हुआ चाहता है ! वो पांडवो से कहते हैं की आज भीष्म पितामह के पास चलकर धर्म का मर्म समझ लेना चाहिए ! उनका अंत समय आ चुका है !

द्रौपदी सहित सभी पांडव और वहाँ  उपस्थित जन समुदाय वहाँ पहुँच कर पितामह के पास खडे हैं ! कृष्ण कहते हैं - पितामह देखिये कौन आया है ? सभी लोग आपसे धर्म का मर्म जानना चाहते हैं !

पितामह कहते हैं - हे श्री कृष्ण अच्छा हुआ आप आगये ! मैं अब आपका ही इन्तजार कर रहा था ! और आप तो साक्षात धर्म ही हैं ! मैं आपके सामने भला क्या धर्म का मर्म बता सकता हूँ ? मेरे पुरे शरीर में दुर्योधन के खाए हुए अन्न से जो लहू बना था वो इस शर शैया पर लेटे २ , बूंद बूंद कर निकल चुका है ! मेरे शरीर में असहनीय पीडा है ! और मैं पुरी तरह से अशक्त हो चुका हूँ ! बोलने में भी बड़ी पीडा हो रही है ! आप ही धर्म का मर्म समझाये !

श्रीकृष्ण ने आगे आकर पितामह के पुरे शरीर पर हाथ फेरा ! और उनके स्पर्श मात्र से पितामह के शरीर में हरकत हुई और वो अत्यन्त स्फूर्ति महसूस करने लगे ! तब उन्होंने धर्म का मर्म समझाया जो की काफी समय तक की चर्चा में समझाया गया ! पर लुब्बे लुआब ये की सत्य हमेशा सत्य होता है ! भले कड़वा हो पर सत्य खरा कुंदन है ! और किसी भी  प्राणी से वो व्यवहार मत करो जो तुम्हे अपने लिए ना पसंद हो ! यही था धर्म का मर्म !

जिस समय पांडव धर्म का मर्म समझ रहे थे उस समय पीछे से अश्वथामा ने जो किया वो आप पीछे पढ़ चुके हैं ! वापस लौट कर पांडव शिविर में कोहराम मचा हुआ था ! आप कल्पना कर ही सकते हैं की जिस औरत के पाँच पुत्र एक साथ काल कवलित हो गए हों उसकी क्या मनोदशा हो रही होगी ?

अचानक अर्जुन बोले - मुझे मालुम है ये किसका काम है ? पांचाली , तुम धैर्य रखो !
जो भी तुम्हारा गुनाहगार है मैं उसे तुम्हारे सामने लाकर उसका सर धड से अलग करूंगा !
अब कौरवों में सिवाए गुरुपुत्र अश्वथामा के कोई नही बचा है ! और ये कार्य सिर्फ़ उसी का है ! और किसी का नही ! और अर्जुन अपना गांडीव उठा कर चलने लगे !

अश्वथामा को मैं आकाश पाताल या कहीं पर भी हो , आज द्रौपदी के सामने लाकर उसका सर काटूंगा !

कृष्ण बोले - भैया अर्जुन मैं भी आपके साथ ही चलता हूँ!
अर्जुन - हे वासुदेव , आप क्या करेंगे ? अश्वथामा कोई इतना बड़ा वीर नही है जो आपकी जरुरत लगेगी ? और वो तेजी से बाहर निकल गया ! पर वासुदेव कृष्ण भी उसी के पीछे पीछे लग गए  !

अश्वथामा उसी जलाशय के आसपास अर्जुन को दिख गया ! अर्जुन ने जाकर उसकी बड़ी बड़ी शिखाओं से पकड़ लिया और घसीटते हुए लाने लगे ! इतने में कृष्ण ने इशारा किया की इसका सर यहीं धड से अलग करदे ! पर अर्जुन मना कर देता है ! 

अर्जुन को श्री कृष्ण ने बहुत समझाया की इसका यहीं पर काम तमाम कर दे ! पर अर्जुन बोला - की नही ! मैंने पांचाली को वचन दिया है ! मैं उसके सामने ही इसका सर काटूंगा !

इधर जैसे ही अश्वथामा को घसीटते हुए अर्जुन वहाँ पहुंचा तो द्रौपदी उसका घसीटा जाना देख कर दूर से ही चिल्लाकर बोली - आर्यपुत्र इसे छोड़ दीजिये !

अर्जुन बोला - यही है तुम्हारे पांचो पुत्रो का हत्यारा !
द्रौपदी - नही आर्यपुत्र , ये गुरुपुत्र है ! और गुरुपुत्र वध करने के लायक नही होता ! इसे अविलम्ब छोड़ दिया जाए !

इस पर युधिष्टर जो साक्षात धर्मराज का अवतार थे - उन्होंने कहा की ये बाल ह्त्या का दोषी है इसे मृत्युदंड दिया ही जाना चाहिए ! और वहाँ उपस्थित सभी ने अश्वथामा को मृत्युदंड दिए जाने की सिफारिश की !

अब द्रौपदी बोली - कल ही तो पितामह ने हमको धर्म का मर्म समझाया था की दुसरे के साथ वह व्यवहार मत करो जो तुम्हे अपने लिए पसंद ना हो  ! और आज ही भूल भी गए ? अरे पुत्र वियोग  की पीडा क्या होती है ? ये मुझसे अच्छी तरह और कौन जान सकता है ? मैं नही चाहती की माँ कृपी ( अश्वथामा की माता ) भी उस शोक को प्राप्त हो जिसे मैं भुगत रही हूँ ! अरे उनका इस अश्वथामा के अलावा अब इस दुनिया में बचा ही कौन है ? गुरु द्रौणाचार्य भी वीरगती को प्राप्त हो चुके हैं !

अब द्रौपदी ने बड़े ही तेज स्वर में कहा - आर्यपुत्र, आप  तुंरत गुरु पुत्र को छोड़ दे !

अब अर्जुन  क्या करे ? उसको कृष्ण की बात का मतलब अब समझ आया की वो क्यों उसका सर वहीं काटने का कह रहे थे ! पर अब अर्जुन की प्रतिज्ञा का क्या हो ? वो तो हत्यारे का सर काटने की प्रतिज्ञा कर चुका था !

तब कृष्ण बोले - अर्जुन,  अश्वथामा  ब्राह्मण है,  और ब्राह्मण की अगर शिखा ( चोटी ) काट दी जाए तो भी उसकी मृत्यु के बराबर ही है ! अत: अब तुम इसकी सिखा काट दो और इसके माथे की अमर मणी निकाल कर इसको भटकने के लिए छोड़ दो ! यूँ भी ये अमरता का वरदान प्राप्त है ! और अर्जुन ने ऐसा ही किया !

इसी लिए कहा जाता है की धर्म का मर्म तो सबने ही सुना था पर उसका पालन सिर्फ़ द्रौपदी ने ही किया ! धन्य हो द्रौपदी !

अब श्रीकृष्ण बोले - काफी समय हो गया अब मैं द्वारका के लिए प्रस्थान करूंगा ! रथ तैयार खडा था ! तब उन्होंने कहा की मैं बुआ कुंती से मिलकर आता हूँ ! वो अन्दर कुंती से आज्ञा लेकर गांधारी से मिलने गए !

गांधारी को प्रणाम किया तो गांधारी बोली- कृष्ण , आज मैं सब कुछ खोकर जिस हालत में हूँ , अगर तुम चाहते तो ऐसा नही होता ! इस पृथ्वी पर वर्तमान में ऐसा कोई नही है जो तुम्हारी बात का उलंघन कर सके ! तुम चाहते तो युद्ध रुक भी सकता था ! पर शुरू से ही तुम्हारी नियत में खोट था ! मैं आज ये दिन नही देखती !

मैं तुझे श्राप देती हूँ की जिस तरह मेरा कुल निर्मूल होकर खत्म हो गया ! उसी तरह से तुम्हारा कुल यदुवंश भी निर्मूल समाप्त हो जाए !

श्री कृष्ण बड़े संयत भाव से सुनते रहे और बोले - माते , मैंने तो आपके श्राप  देने से पहले ही मेरे कुल को ठिकाने लगाने का इंतजाम कर दिया था ! फ़िर आपने  क्यूँ नाहक श्राप देकर अपना तपोबल क्षीण किया ?

और श्री कृष्ण वहाँ से द्वारका के लिए रवाना हो गए ! द्वारका में नई महाभारत तैयार ही थी !

मग्गाबाबा को  प्रणाम !
सोर्स -Magga Baba

No comments:

Post a Comment